रायपुर : छत्तीसगढ़ में दशहरा ख़त्म होते ही लोग दीवाली की तैयारियों में शामिल हो जाते हैं। घर में सफाई की तैयारी शुरू हो गई है। घर के रंग रोगन के साथ पुताई का काम भी होता है और दिवाली की शुरुआत धनतेरस से होती है। दिवाली हर वर्ग के लोगों को काफी पसंद आती है। जब भी दिवाली की बात होती है तब छत्तीसगढ़ की पारंपरिक परंपरा और संस्कृति का जिक्र जरूर होता है।

असल, छत्तीसगढ़ अपनी कला संस्कृति और परंपरागत परंपरा की वजह से पूरे देश में अलग पहचान है। यहां दीवाली को देवरी कहा जाता है। गोवर्धन पूजा के दिन गौवंश की पूजा कर उनका जूठा प्रसाद के रूप में माना जाता है।

राजधानी रायपुर के पंडित मनोज शुक्ला का कहना है कि छत्तीसगढ़ के अन्य आदिवासियों से अलग है कि हम ‘देवारी’ उत्सव के नाम से जानते हैं। छत्तीसगढ़ की पारंपरिक परंपरा से बहुत ही मधुर और मधुर व्यक्ति भी प्रभावित होकर लेने वाला होता है। छत्तीसगढ़ी में ‘माया’ शब्द से पहचाने जाते हैं।

दीवाली का जो पर्व है, उसकी पारंपरिक परंपरा के अनुसार दीयों की कतार को ‘सुरहोती’ कहा जाता है। सुरहोती में सुर के देवता से हैं और उनके लिए जो दीपक जलाई जाती है उसे सुरहोती कहते हैं। छत्तीसगढ़ में चतुर्दशी तिथि के नाम से मनाया जाता है और इस दिन 10 प्रकार की औषधियों को अपने शरीर में उबटन लगाकर स्नान कराया जाता है।

ग्रामीण इलाकों में विशेष दीपदान करके बहुत से लोग अपने घर में पूजा करते हैं। उसके बाद ग्रामीण क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार होता है गोवर्धन पूजा। इस दिन लोग अपने घर के गौधन को स्नान करवाकर उनके लिए विलायती व्यंजन बनाते हैं। गोधन की पूजा की जाती है और इस व्रत को प्रसाद स्वरूप घर के सभी लोग ग्रहण भी करते हैं।

यह हमारे छत्तीसगढ़ की सबसे विशेष प्रथम परंपरा है कि गौ माता को जो खिलाई जाती है उसी का कुछ भाग प्रसाद स्वरूप में निकालकर घर वाले भोजन करते हैं। इसके अलावा हमारे छत्तीसगढ़ की विशेष पारंपरिक परंपरा में सुआ नृत्य है जो दीपावली पर्व आने के कुछ दिन पहले से शुरू होता है। यह छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध लोकगीत है। इस नृत्य में महिलाएं और लड़कियां गोल घेरा बनाकर बीच में सुआ यानी तोता की मूर्ति को नृत्य करती हैं।

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