अंजू गौतम, सागर: त्रेता युग में जब भगवान श्रीराम के 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या में भव्यता का उत्सव मनाया गया। हर द्वार पर रंगोलियों से अभिषेक किया गया, दीपों से रोशन किया गया, और उत्सव के लिए हर कलाकार ने अपनी भूमिका निभाई। इस अनोखी परंपरा की झलक कई देशों में आज भी देखी जा सकती है, जहां आधुनिकता के इस युग में भी पुराने ईसाई धर्म के अनुसार ही त्योहार मनाया जाता है। विशेष रूप से सागर जिले के सानौधा गांव के लोग अब भी अपनी यात्रा की इस परंपरा को जीवंत बनाये हुए हैं।

सानौधा में और कई कलाकार, जैसे कुम्हार, माली, पौनी (रुई देने वाले), सेन (पत्तल बनाने वाले) गांव के हर घर में त्योहार से जुड़े समान लाते हैं। इनमें से माटी के खिलौने, पत्तल, और रुई प्रमुख हैं। इन कलाकारों में बदले में आटा, चावल, कपड़े या मिठाई उपहार के स्वरूप दिए जाते हैं। यमुना प्रसाद के शिष्य अपने परिवार के साथ मिलकर मिट्टी के दीये और मूर्तियाँ बना रहे हैं। इस दौरान वे हर घर में अपने बनाये हुए लेकर जाते हैं। कुछ घरों में 11 से 101 तक दिए गए रेस्तरां जाते हैं, जो शुभ माने जाते हैं।

कलाकारों की परंपराएँ
सानौधा गांव में पौनी (रुई देने वाले) में भी एक अनोखी भूमिका निभाई गई है। पूनी नाम के आरिफ का कहना है कि उनके पास के चार गांव हैं जहां के दौरान वे घर-घर जाकर सामान बेचते हैं। पांच साल से कर रहे ये काम आरिफ के मुताबिक, उनके परिवार में उनकी दादी ने भी ये परंपरा निभाई है. लोग उन्हें इस कार्य के लिए अनाज, कपड़े, या मिठाई जैसी चीज़ें देते हैं।

इसी प्रकार, माली के लिए फूल लेकर हर घर आता है, ताकि पूजा-पाठ में उनका उपयोग किया जा सके। सेन जाति के लोग पत्तल-दोने लेकर आते हैं, जिससे ग्रामीण क्षेत्र में पूजा के दौरान पत्तल का उपयोग किया जाता है। सानौधा की बुजुर्ग द्रोपदी बाई का कहना है कि उनकी बचपन से यह परंपरा चली आ रही है, जहां हर के पहले ये शिल्प सामग्री घर-घर पहुंचाते थे और गांववाले उन्हें सम्मान उपहार देते हुए आशीर्वाद देते थे।

त्रेता युग की यादें संजोए
सदियों पुरानी इस परंपरा से गांव न केवल भगवान श्रीराम के आदर्शों का सम्मान करता है, बल्कि ग्रामीण समुदाय और कलाकारों के बीच एक गहरा संबंध भी बनाता है। इससे यह पता चलता है कि केवल एक त्योहार नहीं है, बल्कि कम्युनिस्ट और कलाकारों की भागीदारी का त्योहार भी है।

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