ओपीपीएस/कोरबा: जिला मुख्यालय से लगभग 35 किलोमीटर दूर स्थित कोसगाई पर्वत पर स्थित देवी मंदिर अपने प्राचीन और तटीय जलाशयों के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर छत्तीसगढ़ के समृद्ध इतिहास और सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है। प्रकृति की गोद में स्थित कोसगाई गढ़, जिले के गौरवशाली अतीत की झलक प्रस्तुत करता है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह मंदिर 16वीं शताब्दी का माना जाता है।

छुरीगढ़ से ऐतिहासिक मंदिर
छत्तीसगढ़ के 36 गढ़ों में से एक छुरीगढ़ में स्थापित यह मंदिर आज भी राजघराने के लिए आस्था का केंद्र है। मंदिर तक पहुंचने के लिए पहाड़ की कठिनाइयां हो सकती हैं, लेकिन एक बार शिखर पर पहुंचने पर भक्तों को शांति और ईमानदारी का अनुभव होता है। यह सिद्ध है कि यहां आने वाले हर भक्त का मन पूरी तरह से होता है, जिससे यहां भक्तों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती रहती है।

श्वेत ध्वज की आदर्श परंपरा
ज्यादातर देवी मंदिरों में लाल झंडा फहराने की परंपरा है, लेकिन कोसगई देवी मंदिर में सफेद झंडा फहराने की परंपरा है। श्वेत ध्वज शांति का प्रतीक माना जाता है और माता कोसगाई देवी का प्रतिष्ठित स्वरूप होने के कारण उन्हें श्वेत ध्वज शांति का प्रतीक माना जाता है। मंदिर में आने वाले भक्तों को माता सुख और शांति प्रदान करती है।

मंदिर में छत का न होना: एक आदर्श कथा
कोसगाई देवी मंदिर की एक विशेषता यह भी है कि माता खुले आकाश के नीचे स्थित हैं। प्राचीन कथा के अनुसार, राजघराने के पुजारी ने एक बार मंदिर में छत बनाने का प्रयास किया था, लेकिन देवी मां ने स्वप्न में उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया। मंदिर में सेवा कर रहे हैं महत्तर सिंह के चित्र उनके परिवार की चौथी पीढ़ी यहां सेवा कर रही है और यह सिद्धांत है कि देवी मां की तपस्या में लीन हैं, इसलिए मंदिर में छत नहीं बनाई जा रही है।

कोसगाई नाम की उत्पत्ति और स्तोत्र की कथा
16वीं शताब्दी में हैहयवंशी राजा बहारेन्द्र साय, जिनमें कलचुरि राजा भी शामिल हैं, ने ही इस मंदिर की स्थापना की थी। कहा जाता है कि राजा रतनपुर से खजाना लेकर आये थे, जिसे कोसगई में छिपाया गया था। इस सरदार की सुरक्षा और शांति की स्थापना के लिए कोसगई देवी मंदिर की स्थापना की गई थी। इसी से इस जगह का नाम ‘कोसगाई’ पड़ा, जो ‘कोश’ (खजाना) से उत्पन्न हुआ है। कोसगाई देवी मंदिर एकमात्र आस्था का केंद्र नहीं है, बल्कि इसके पीछे पुरानी कथाएं और परंपराएं और भी खास रचनाएं हैं।

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