आशान्वित. मृत्यु जीवन का वह अहम सच है जिसे कोई टाल नहीं सकता और न ही उससे कोई मुंह मोड़ सकता है। इस दुनिया में जिसने भी जन्म लिया उसकी मृत्यु भी निश्चित है। जैसा कि हम जानते हैं कि हिंदू सनातन धर्म में मृत्यु के बाद शरीर को जलाकर नष्ट कर दिया जाता है। धार्मिक दृष्टि से अंतिम संस्कार का महत्व बहुत महत्वपूर्ण है। और भी 16 संस्कार का है. आप जानते हैं कि हिंदू धर्म में किसी संन्यासी की मृत्यु के बाद उसका दाह संस्कार नहीं किया जाता है। ऐसा क्यों आइए जानते हैं मसाल के पंडित आनंद भारद्वाज के विस्तार से।
शास्त्रों के अनुसार रीति और नियम आवश्यक
गरुड़ पुराण के अनुसार, सभी श्रमिकों को करने की विशेष रीति और नियम होते हैं। रीति और नियम से चले गए कार्य से ही आत्मा को शांति मिलती है और अगले जन्म यानी नए शरीर में उसका प्रवेश द्वार खुलते हैं या वह स्वर्ग में चली जाती है। बौद्धों में साधु-संतों और बच्चों को दफनाया जाता है जबकि सामान्य व्यक्ति का दाह संस्कार किया जाता है। उदाहरण के लिए गोसाईं, नाथ और बैरागी संत समाज के लोग अपने मृतकों को आज भी समाधि देते हैं। यदि वैदिक रीति और संस्कृति दोनों ही तरीके से चलन में हैं।
बॉटम को बॉटम क्यों कहा जाता है?
गुरुण पुराण के अनुसार, गर्भ में पल रहे बच्चे या फिर 2 साल से कम उम्र के बच्चे की मृत्यु हो जाए, तो उसका अंतिम संस्कार नहीं किया जा सकता। ऐसा माना जाता है कि छोटी उम्र में मृत्यु होने पर आत्मा को शरीर से कोई लाभ नहीं होता है। इस कारण से आत्मा उस शरीर को तुरंत छोड़ देती है। यही कारण है कि नवजात शिशु को अंतिम संस्कार के स्थान पर दफना दिया जाता है। या फिर किसी नदी में विसर्जित किया जाता है।
साधु-संतों को क्यों दफनाया जाता है?
शास्त्रों के अनुसार गरुण पुराण में हर किसी के जीवन से ले मृत्यु तक की कही अहम बातें लिखी गई हैं। ऐसे ही गुरुण पुराण के अनुसार साधु-संतों को भी नहीं जलाया जाता, क्योंकि संत पुरुषों की आत्मा शरीर में रहकर भी साधु-संतों का त्याग कर देती है। साथ ही मोह-माया से दूर रहता है। इसके अलावा तप और पूजा-पाठ करके अपनी इंद्रियों पर विजय भी प्राप्त कर सकते हैं। इसी कारण से उनके शरीर का विसर्जन की परंपरा है।
पहले प्रकाशित : 11 सितंबर, 2024, 19:24 IST
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