केशव कुमार/महासमुंद: छत्तीसगढ़ में गौरी-गौरा पूजा का विशेष धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व है। लोक सिद्धांत के अनुसार, यह पूजा त्रेता युग की उस पौराणिक कथा से प्रेरित है जिसमें शिव-पार्वती का विवाह धूमधाम से हुआ था। इस पर्व में विशेष रूप से गोंड समुदाय के लोग शामिल हैं, जो शिव-पार्वती के विवाह का प्रतीक है। दीपावली के दिन कुंवारी मिट्टी से गौरी-गौरा की आतिशबाजी का निर्माण कर रात्रिभर विवाह की रस्में निकाली जाती हैं और अगले दिन नदियों या तालाबों में उनका विसर्जन किया जाता है।

मिट्टी से बनी हैं शिव-पार्वती की मूर्तियां
इस पर्व में शाम को गांव के लोग मिलकर गांव के बाहर मिट्टी निकालते हैं और उसी मिट्टी से शिव-पार्वती की मूर्तियां तोड़ते हैं। पार्वती (गौरी) कछुए पर और शिव (गौरा) बैल पर जाते हैं। अनूठे से लाशें जाती हैं और दीयों से निकाली जाती हैं। दीपावली की रात लक्ष्मी पूजा के बाद मध्यरात्रि से गौरी-गौरा की हुंकार पूरे गांव में घूमाई जाती है। इस दौरान कुंवारे युवक और युवतियां सर पर गौरी-गौरा के पीछे गांव की मूर्तियां बनाते हैं। साथ ही ग्रामीण लोकगीत, नृत्य और वाद्ययंत्रों की धुनों पर उल्लास का उल्लास मचा हुआ है।

पारंपरिक वाद्य यंत्रों से गूंजता पर्व है
गौरी-गौरा के इस पर्व में गंडवा बाजा विशेष आकर्षण होता है, जिसमें मौसा, सिंगा बाजा, ढोल, गुदुम, मोहरी, मंजीरा, झुमका, डफ और ट्रास्क प्रमुख रूप से शामिल होते हैं। पुरुष वाद्य यंत्र बजाते हैं और महिलाएं गौरी-गौरा लोकगीत गाती हैं। ऐसा माना जाता है कि इस दौरान देवताओं पर सवार हो जाते हैं, जिससे पूरे मोरक्को में भक्तिभाव और उल्लास का संचार हो जाता है। छत्तीसगढ़ में गौरी-गौरा उत्सव दीपावली के बाद मनाया जाता है, जिसमें समाज के सभी लोग शामिल होते हैं।

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